ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से
तमाशा देख रहा हूँ मैं अपने जलने का
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बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए
बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर