ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
अब मुझे ज़िद है कि बर्बाद किया जाए उसे
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Gulzar
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Rahat Indori
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(554) Peoples Rate This
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
एक हंगामा बपा है अर्सा-ए-अफ़्लाक पर
अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ