अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
वो जब्र था कि ख़ुद को ख़ुदा कर चुके हैं हम
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नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ