चंद लम्हे को तू ख़्वाबों में भी आ कर झाँक ले
ज़िंदगी तुझ से मिले कितने ज़माने हो गए
Mohsin Naqvi
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Anwar Masood
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Wasi Shah
Habib Jalib
Parveen Shakir
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शहर भर के आईनों पर ख़ाक डाली जाएगी
सफ़ीना मौज-ए-बला के लिए इशारा था
लम्हा लम्हा तजरबा होने लगा
हम अपने जलते हुए घर को कैसे रो लेते
तिलिस्म तोड़ दिया इक शरीर बच्चे ने
रात की सरहद यक़ीनन आ गई
आरज़ूओं की रुतें बदले ज़माने हो गए
हमारा शेर भी लौह-ए-तिलिस्म है शायद
ग़म का सूरज तो डूबता ही नहीं
इस से पहले कि सर उतर जाएँ