रात की सरहद यक़ीनन आ गई
जिस्म से साया जुदा होने लगा
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Parveen Shakir
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आरज़ूओं की रुतें बदले ज़माने हो गए
इस से पहले कि सर उतर जाएँ
हम अपने जलते हुए घर को कैसे रो लेते
लम्हा लम्हा तजरबा होने लगा
हमारा शेर भी लौह-ए-तिलिस्म है शायद
तिलिस्म तोड़ दिया इक शरीर बच्चे ने
शहर भर के आईनों पर ख़ाक डाली जाएगी
चंद लम्हे को तू ख़्वाबों में भी आ कर झाँक ले
सफ़ीना मौज-ए-बला के लिए इशारा था
ग़म का सूरज तो डूबता ही नहीं