सहर को साथ उड़ा ले गई सबा जैसे
ये किस ने कर दिए रस्ते धुआँ धुआँ मेरे
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यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत
वो चराग़ सा कफ़-ए-रहगुज़ार में कौन था
इक राज़-ए-दिलरुबा को बयाँ होना है अभी
समुंदरों को सिखाता है कौन तर्ज़-ए-ख़िराम
कब बन-बास कटे इस शहर के लोगों का
ज़िंदगी के कटहरे में इक बे-ख़ता आदमी की तरह
शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं
शिकोह-ए-आब में गुम थे जिहत-निशाँ मेरे
वही है दश्त-ए-सफ़र रहगुज़र से आगे भी
लहू में फूल खिलाने कहाँ से आते हैं