लहू में फूल खिलाने कहाँ से आते हैं
नए ख़याल न जाने कहाँ से आते हैं
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शिकोह-ए-आब में गुम थे जिहत-निशाँ मेरे
पस-ए-आइना ख़द-ओ-ख़ाल में कोई और था
समुंदरों को सिखाता है कौन तर्ज़-ए-ख़िराम
वही है दश्त-ए-सफ़र रहगुज़र से आगे भी
शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत
चमके दूरी में कुछ अक्स निशानों के
कब बन-बास कटे इस शहर के लोगों का
यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
ज़िंदगी के कटहरे में इक बे-ख़ता आदमी की तरह
इक राज़-ए-दिलरुबा को बयाँ होना है अभी