समुंदरों को सिखाता है कौन तर्ज़-ए-ख़िराम
ज़मीं की तह में ख़ज़ाने कहाँ से आते हैं
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Faiz Ahmad Faiz
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ज़िंदगी के कटहरे में इक बे-ख़ता आदमी की तरह
पस-ए-आइना ख़द-ओ-ख़ाल में कोई और था
सहर को साथ उड़ा ले गई सबा जैसे
वो चराग़ सा कफ़-ए-रहगुज़ार में कौन था
यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
वही है दश्त-ए-सफ़र रहगुज़र से आगे भी
चमके दूरी में कुछ अक्स निशानों के
लहू में फूल खिलाने कहाँ से आते हैं
शिकोह-ए-आब में गुम थे जिहत-निशाँ मेरे
इक राज़-ए-दिलरुबा को बयाँ होना है अभी