यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
हर रौशनी को शहर-बदर कर दिया गया
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Habib Jalib
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(486) Peoples Rate This
कब बन-बास कटे इस शहर के लोगों का
लहू में फूल खिलाने कहाँ से आते हैं
वो चराग़ सा कफ़-ए-रहगुज़ार में कौन था
ज़िंदगी के कटहरे में इक बे-ख़ता आदमी की तरह
शिकोह-ए-आब में गुम थे जिहत-निशाँ मेरे
इक राज़-ए-दिलरुबा को बयाँ होना है अभी
शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत
शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं
चमके दूरी में कुछ अक्स निशानों के
सहर को साथ उड़ा ले गई सबा जैसे
समुंदरों को सिखाता है कौन तर्ज़-ए-ख़िराम