शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत
हर्फ़-ए-एजाज़ की तासीर से लब जागते हैं
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यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
इक राज़-ए-दिलरुबा को बयाँ होना है अभी
ज़िंदगी के कटहरे में इक बे-ख़ता आदमी की तरह
शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं
पस-ए-आइना ख़द-ओ-ख़ाल में कोई और था
समुंदरों को सिखाता है कौन तर्ज़-ए-ख़िराम
वो चराग़ सा कफ़-ए-रहगुज़ार में कौन था
लहू में फूल खिलाने कहाँ से आते हैं
कब बन-बास कटे इस शहर के लोगों का
चमके दूरी में कुछ अक्स निशानों के
शिकोह-ए-आब में गुम थे जिहत-निशाँ मेरे