जो हो वरा-ए-ज़ात वो जीना ही और है
वही इक फ़रेब हसरत कि था बख़्शिश-ए-निगाराँ
फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं
ऐ दिल तिरे ख़याल की दुनिया कहाँ से लाएँ
तुम से उल्फ़त के तक़ाज़े न निबाहे जाते
इक महक सी दम-ए-तहरीर कहाँ से आई
इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है
समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के
उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक
पाई न कोई मंज़िल पहुँचीं न कहीं राहें