नज़र चुरा गए इज़हार-ए-मुद्दआ से मिरे
ऐ दिल तिरे ख़याल की दुनिया कहाँ से लाएँ
समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक
फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं
इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है
रू भी अक्स-ए-रू भी मैं
दुनिया ही की राह पे आख़िर रफ़्ता रफ़्ता आना होगा
जहान-ए-दिल में हुए इंक़लाब और ही कुछ
वही इक फ़रेब हसरत कि था बख़्शिश-ए-निगाराँ
हर-चंद कि साग़र की तरह जोश में रहिए
लोग तुम से भी सितम-पेशा कहाँ होते हैं