असर न हो तो उसी नुत्क़-ए-बे-असर से कह
मोहब्बत ख़ार-ए-दामन बन के रुस्वा हो गई आख़िर
फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं
है अब की फ़स्ल में रंग बहार और ही कुछ
समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती
वही इक फ़रेब हसरत कि था बख़्शिश-ए-निगाराँ
इक महक सी दम-ए-तहरीर कहाँ से आई
निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के
दुनिया ही की राह पे आख़िर रफ़्ता रफ़्ता आना होगा
वो कहाँ वक़्त कि मोड़ेंगे इनाँ और तरफ़
जहान-ए-दिल में हुए इंक़लाब और ही कुछ
लोग तुम से भी सितम-पेशा कहाँ होते हैं