यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
पहरे-दारों में कोई आँख झपक जाता है
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सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
वो एक ख़्वाब कि आँखों में जगमगा रहा है
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया
ख़ाक-ज़ादा हूँ मगर ता-ब फ़लक जाता है