इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
कि रास्ता यहाँ दरिया बनाने वाला है
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यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है