किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
पहुँच गई है कहाँ जाने बात चलते हुए
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सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए