वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
वो एक मैं कि मिरा कोई रोने वाला नहीं
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भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर