मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
सो अब के झील में इक दाएरा बनाना है
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इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
वो एक ख़्वाब कि आँखों में जगमगा रहा है
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर