मता-ए-जाँ हैं मिरी उम्र भर का हासिल हैं
वो चंद लम्हे तिरे क़ुर्ब में गुज़ारे हुए
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इक ऐसा वक़्त भी सहरा में आने वाला है
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
सदा-ए-मुज़्दा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से