कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
कितने ख़ंजर कि मिरी एक नहीं पर चमके
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वो एक ख़्वाब कि आँखों में जगमगा रहा है
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
ख़ाक-ज़ादा हूँ मगर ता-ब फ़लक जाता है
ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ़ गीले से
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
वफ़ा का शौक़ ये किस इंतिहा में ले आया