''जो भी आवे है वो नज़दीक ही बैठे है तिरे''
शीशा-ए-चश्म में किस किस को उतारा हुआ है
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मिरे ख़ुदा कोई छाँव कोई ज़मीं कोई घर
दरीचा आइने पर खुल रहा है
दिल भी दाग़-ए-नक़्श-ए-कुहन से बुझा हुआ था
चेहरों को पैरों से कुचल कर आगे बढ़ जाना
हर किसी ख़्वाब के चेहरे पे लिखूँ नाम तिरा
सहर होते ही जैसे रेत भर जाती है साँसों में
तितलियाँ फूल में क्या ढूँढती रहती हैं सदा
तेरी तख़्लीक़ तिरा रंग हवाला था मिरा
मेज़ पे चेहरा ज़ुल्फ़ें काग़ज़ पर
मोहब्बत से तिरी यादें जगा कर सो रहा हूँ
रौशन आईनों में झूटे अक्स उतार गया
किसी बंजर तख़य्युल पर किसी बे-आब रिश्ते में