गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं
और हंगामे उठा लाया है बाज़ार से तू
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बे-ताबी-ए-ग़म-हा-ए-दरूँ कम नहीं होगी
इस भरे शहर में आराम मैं कैसे पाऊँ
चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
सारी मख़्लूक़ तमाशे के लिए आई थी
वैसे तो इक दूसरे की सब सुनते हैं
ख़िज़ाँ जब आए तो आँखों में ख़ाक डालता हूँ
फ़स्ल-ए-गुल ख़ाक हुई जब तो सदा दी तू ने
ये सोच कर कि तेरी जबीं पर न बल पड़े
अजनबी शहरों में तुझ को ढूँढता हूँ जिस तरह
भटकती हैं ज़माने में हवाएँ
इस क़दर तेज़ न चल साँस उखड़ जाएगा
दिल भी तो इक दयार है रौशन हरा-भरा