गुज़र ही जाएगी 'शहज़ाद' जो गुज़रनी है
सँभालने से तबीअत कहाँ सँभलती है
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अक़्ल हर बात पे हैराँ है इसे क्या कहिए
गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं
दिल-ए-फ़सुर्दा उसे क्यूँ गले लगा न लिया
न बस्तियों को अज़ीज़ रक्खें न हम बयाबाँ से लौ लगाएँ
उदास छोड़ गए कश्तियों को साहिल पर
मंज़िल है कठिन दिल बहुत आराम-तलब है
लबों पे आ के रह गईं शिकायतें कभी कभी
तुम ही क्या जज़्ब हो गए मुझ में
हम अपने हाल पर ख़ुद रो दिए हैं
चराग़ ख़ुद ही बुझाया बुझा के छोड़ दिया
अपने ही अक्स को पानी में कहाँ तक देखूँ
जिस से दो रोज़ भी खुल कर न मुलाक़ात हुई