जिस से दो रोज़ भी खुल कर न मुलाक़ात हुई
मुद्दतों ब'अद मिले भी तो गिला कैसे हो
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Jaun Eliya
Gulzar
Wasi Shah
Javed Akhtar
Rahat Indori
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(421) Peoples Rate This
जहाँ में हम ने किसी से भी खुल के बात न की
बे-शुमार आँखें
ख़ल्क़ ने छीन ली मुझ से मिरी तन्हाई तक
ये किस के आने के इम्काँ दिखाई देते हैं
बैठा ही रहा सुब्ह से में धूप ढले तक
करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
यूँ तो हम अहल-ए-नज़र हैं मगर अंजाम ये है
तेरी क़ुर्बत में गुज़ारे हुए कुछ लम्हे हैं
जब चल पड़े तो बर्क़ की रफ़्तार से चले
तुम ही क्या जज़्ब हो गए मुझ में
वो मिरे पास है क्या पास बुलाऊँ उस को
अगरचे कार-ए-दुनिया कुछ नहीं है