करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
तुर्बतों पर दिए जलाते रहो
Anwar Masood
Gulzar
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Habib Jalib
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
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कोई तो रात को देखेगा जवाँ होते हुए
छुप छुप के कहाँ तक तिरे दीदार मिलेंगे
आज़ाद था मिज़ाज तो क्यूँ घर बना लिया
जब आफ़्ताब न निकला तो रौशनी के लिए
वाक़िआ ये है कि रस्ता और वीराँ हो गया
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
मेरी ख़ातिर देर न करना और सफ़र करते जाना
मतलूब है क्या अब यही कहते नहीं बनती
जाने किस सम्त से हवा आई
जल भी चुके परवाने हो भी चुकी रुस्वाई
मुझे बस इतनी शिकायत है मरने वालों से
बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है