हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया
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एक दरख़्त
अस्ल में हूँ मैं मुजरिम मैं ने क्यूँ शिकायत की
फ़लक से घूरती हैं मुझ को बे-शुमार आँखें
नींद आती है अगर जलती हुई आँखों में
सफ़र भी दूर का है और कहीं नहीं जाना
अब तो साफ़ सुनता हूँ अपने दिल की हर धड़कन
उदास छोड़ गए कश्तियों को साहिल पर
दिल सा वहशी कभी क़ाबू में न आया यारो
हम कि इंसान नहीं आँखें हैं
कुछ तेरे सबब थी मिरे पहलू में हरारत
वो कौन है उसे सूरज कहूँ कि रंग कहूँ
बे-हुनर हाथ चमकने लगा सूरज की तरह