कुछ तेरे सबब थी मिरे पहलू में हरारत
कुछ दिल ने भी इस आग को भड़काया हुआ था
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अजब नहीं कि इसी बात पर लड़ाई हो
जहाँ में हम ने किसी से भी खुल के बात न की
जिस ने तिरी आँखों में शरारत नहीं देखी
आरज़ू की बे-हिसी का गर यही आलम रहा
फ़लक से घूरती हैं मुझ को बे-शुमार आँखें
करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
तुम्हारी बज़्म से भी उठ चले हैं दीवाने
ऐ सुब्ह की किरन मुझे प्यारी है तू बहुत
गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने
शहर का शहर अगर आए भी समझाने को
ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात