ऐ सुब्ह की किरन मुझे प्यारी है तू बहुत
तुझ से लिपट पड़ूँगा अगर जागता हुआ
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ज़मीं अपने लहू से आश्ना होने ही वाली है
फ़लक से घूरती हैं मुझ को बे-शुमार आँखें
घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू
लेते हैं लोग साँस भी अब एहतियात से
ज़रा लबों के तबस्सुम से बज़्म गर्माएँ
अब भी वही दिन रात हैं लेकिन फ़र्क़ ये है
शायद इसी बाइस हुईं पत्थर मिरी आँखें
बिगड़ी हुई इस शहर की हालत भी बहुत है
मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर
खिले जो फूल तो मुँह छुप गया सितारों का
भरपूर नहीं हैं किसी चेहरे के ख़द-ओ-ख़ाल
बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे