लेते हैं लोग साँस भी अब एहतियात से
छोटा सा ही सही कोई फ़ित्ना उठाइए
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जहाँ में मंज़िल-ए-मक़्सूद ढूँडने वाले
यूँ तो हम अहल-ए-नज़र हैं मगर अंजाम ये है
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
सीने में बे-क़रार हैं मुर्दा मोहब्बतें
इस दौर-ए-बे-दिली में कोई बात कैसे हो
ख़्वाहिशों की धूल से चेहरे उभरते ही नहीं
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
कुछ न कुछ हो तो सही अंजुमन-आराई को
घबरा के आसमाँ की तरफ़ देखती थी ख़ल्क़
ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात
सब्त है चेहरों पे चुप बन में अंधेरा हो चुका
कोशिश है शर्त यूँही न हथियार फेंक दे