सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
हज़ार बार मरे हम हज़ार बार जिए
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क्यूँ बुलाती है मुझे दुनिया उसी के नाम से
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
नींद आती है अगर जलती हुई आँखों में
दिल भी तो इक दयार है रौशन हरा-भरा
यादों की ज़ंजीरें
अब भी वही दिन रात हैं लेकिन फ़र्क़ ये है
सेहर लगता है पसीने में नहाया हुआ जिस्म
हमारे पेश-ए-नज़र मंज़िलें कुछ और भी थीं
अपने लिए तो ख़ाक की ख़ुश्बू है ज़िंदगी
चाहे अब आप भी मुझे आसेब ही कहें
मतलूब है क्या अब यही कहते नहीं बनती
भटकती हैं ज़माने में हवाएँ