न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
वो मुझे देख के पहचान लिया करते थे
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अजब नहीं कि इसी बात पर लड़ाई हो
गुज़र ही जाएगी 'शहज़ाद' जो गुज़रनी है
गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं
पैरहन चुस्त हवा सुस्त खड़ी दीवारें
मयस्सर फिर न होगा चिलचिलाती धूप में चलना
सेहर लगता है पसीने में नहाया हुआ जिस्म
रूह की आग
देखने उस को कोई मेरे सिवा क्यूँ आए
हम दो क़दम भी चल न सके ख़ाक-ए-पा हुए
जब चल पड़े तो बर्क़ की रफ़्तार से चले
अपनी तस्वीर को आँखों से लगाता क्या है
गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने