नक़्श-ए-हैरत बन गई दुनिया सितारों की तरह
सब की सब आँखें खुली हैं जागता कोई नहीं
Mir Taqi Mir
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Wasi Shah
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Allama Iqbal
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घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू
हर दम तिरी शबीह थी आँखों के सामने
मतलूब है क्या अब यही कहते नहीं बनती
हौसला है तो सफ़ीनों के अलम लहराओ
भटकती हैं ज़माने में हवाएँ
वीरान तो नहीं शब-ए-तारीक की फ़ज़ा
मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर
इसी बाइस ज़माना हो गया है उस को घर बैठे
ठहर गई है तबीअत इसे रवानी दे
जुलते हैं इक चराग़ की लौ से कई चराग़
करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
तुम्हारी आरज़ू में मैं ने अपनी आरज़ू की थी