वीरान तो नहीं शब-ए-तारीक की फ़ज़ा
हर-सू हवा-ए-बादा से कुछ रौशनी तो है
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ख़ुद ही मिल बैठे हो ये कैसी शनासाई हुई
बे-शुमार आँखें
मेरी रुस्वाई में वो भी हैं बराबर के शरीक
ख़िज़ाँ जब आए तो आँखों में ख़ाक डालता हूँ
रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को
वो जा चुका है तो क्यूँ बे-क़रार इतने हो
दिल बहुत मसरूफ़ था कल आज बे-कारों में है
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
न मिले वो तो तलाश उस की भी रहती है मुझे
चमक चमक के सितारो मुझे फ़रेब न दो
मयस्सर फिर न होगा चिलचिलाती धूप में चलना
अपने लिए तो ख़ाक की ख़ुश्बू है ज़िंदगी