वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
क्यूँ न ख़ामोश रहूँ अहल-ए-नज़र कहलाऊँ
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तेरे सीने में भी इक दाग़ है तन्हाई का
आँखें न खुलें नूर के सैलाब में मेरी
क्यूँ बुलाती है मुझे दुनिया उसी के नाम से
ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात
जवाज़ कोई अगर मेरी बंदगी का नहीं
करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
ज़बानें थक चुकीं पत्थर हुए कान
शायद इसी बाइस हुईं पत्थर मिरी आँखें
ख़ल्क़ बे-परवा ख़ुदा बंदों से तंग आया हुआ
तुझ में कस-बल है तो दुनिया को बहा कर ले जा
सफ़र-ए-शौक़ है बुझते हुए सहराओं में
जिस को जाना ही नहीं उस को ख़ुदा क्यूँ मानें