सफ़र-ए-शौक़ है बुझते हुए सहराओं में
आग मरहम है मिरे पाँव के छालों के लिए
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बे-ताबी-ए-ग़म-हा-ए-दरूँ कम नहीं होगी
देख अब अपने हयूले को फ़ना होते हुए
रुख़्सत हुआ तो आँख मिला कर नहीं गया
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
दिल ओ निगाह का ये फ़ासला भी क्यूँ रह जाए
ये न हो वो भूलने वाला भुला देना पड़े
ख़्वाहिशों की धूल से चेहरे उभरते ही नहीं
सब की तरह तू ने भी मिरे ऐब निकाले
ख़ामुशी ही में सही पर कभी इज़हार तो कर
कमरों में छुपने के दिन हैं और न बरहना रातें हैं
घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू
बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे