सब की तरह तू ने भी मिरे ऐब निकाले
तू ने भी ख़ुदाया मिरी निय्यत नहीं देखी
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रहने दिया न उस ने किसी काम का मुझे
शम्अ जलते ही यहाँ हश्र का मंज़र होगा
हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
चराग़ ख़ुद ही बुझाया बुझा के छोड़ दिया
शब की तन्हाइयों में याद उस की
सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
ख़ुद ही तस्वीर बनाता हूँ मिटा देता हूँ
आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
मुझे बस इतनी शिकायत है मरने वालों से
वो मुझे प्यार से देखे भी तो फिर क्या होगा
खुली फ़ज़ा में अगर लड़खड़ा के चल न सकें
यूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ की क़सम खाए हुए हों