ख़ुद ही तस्वीर बनाता हूँ मिटा देता हूँ
बुत-गरी मेरे लिए बुत-शिकनी हो जैसे
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हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
दिन निकलते ही वो ख़्वाबों के जज़ीरे क्या हुए
शम्अ जलते ही यहाँ हश्र का मंज़र होगा
उम्र जितनी भी कटी उस के भरोसे पे कटी
मैं सुन रहा हूँ मगर दूसरों को कैसे सुनाऊँ
सीने में बे-क़रार हैं मुर्दा मोहब्बतें
मुंतज़िर दश्त-ए-दिल-ओ-जाँ है कि आहू आए
शब ढल गई और शहर में सूरज निकल आया
हम लोगों को अपने दिल के राज़ बताते रहते हैं
ख़ुशा वो दर्द के लम्हे कि तेरे जाने पर
अपने ही अक्स को पानी में कहाँ तक देखूँ
आँख-मिचोली