शब ढल गई और शहर में सूरज निकल आया
मैं अपने चराग़ों को बुझाता नहीं फिर भी
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न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
आता है ख़ौफ़ आँख झपकते हुए मुझे
आरज़ूओं ने कई फूल चुने थे लेकिन
अब जहाँ मैं हूँ वहाँ मेरे सिवा कुछ भी नहीं
वो कोई और है जिस ने तुझे चाहा होगा
फ़लक से घूरती हैं मुझ को बे-शुमार आँखें
तुम्हारी बज़्म से भी उठ चले हैं दीवाने
बे-शुमार आँखें
मैं सुन रहा हूँ मगर दूसरों को कैसे सुनाऊँ
इस दौर-ए-बे-दिली में कोई बात कैसे हो
ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात
मंज़िल पे जा के ख़ाक उड़ाने से फ़ाएदा