अब जहाँ मैं हूँ वहाँ मेरे सिवा कुछ भी नहीं
मैं इसी सहरा में रहता था मगर तन्हा न था
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दिल का बुरा नहीं मगर शख़्स अजीब ढब का है
कुछ तज़किरा-ए-हुस्न से रौशन थे दर-ओ-बाम
नींद आती है अगर जलती हुई आँखों में
मैं कि ख़ुश होता था दरिया की रवानी देख कर
यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
अब अपने चेहरे पर दो पत्थर से सजाए फिरता हूँ
दीवार किस तरफ़ से बढ़े कुछ ख़बर नहीं
अगरचे कार-ए-दुनिया कुछ नहीं है
मैं जो रोता हूँ तो कहते हो कि ऐसा न करो
मतलूब है क्या अब यही कहते नहीं बनती
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे
घबरा के आसमाँ की तरफ़ देखती थी ख़ल्क़