मतलूब है क्या अब यही कहते नहीं बनती
दामन तो बड़े शौक़ से फैलाया हुआ था
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पुराने दोस्तों से अब मुरव्वत छोड़ दी हम ने
आगे निकल गए वो मुझे देखते हुए
प्यार के रंग-महल बरसों में तय्यार हुए
घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू
तेरी क़ुर्बत में गुज़ारे हुए कुछ लम्हे हैं
अपनी तस्वीर को आँखों से लगाता क्या है
ख़्वाहिशों की धूल से चेहरे उभरते ही नहीं
दिन निकलते ही वो ख़्वाबों के जज़ीरे क्या हुए
खुली फ़ज़ा में अगर लड़खड़ा के चल न सकें
न बस्तियों को अज़ीज़ रक्खें न हम बयाबाँ से लौ लगाएँ
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
उम्र भर सुनता रहूँ अपनी सदा की बाज़गश्त