तेरी क़ुर्बत में गुज़ारे हुए कुछ लम्हे हैं
दिल को तन्हाई का एहसास दिलाने वाले
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हैराँ हूँ हासिदों को पता कैसे चल गया
तीरगी ही तीरगी हद्द-ए-नज़र तक तीरगी
कैसे गुज़र सकेंगे ज़माने बहार के
अब मिरा दर्द मरी जान हुआ जाता है
खुले असरार उस पर जिस्म के आहिस्ता आहिस्ता
दिन निकलते ही वो ख़्वाबों के जज़ीरे क्या हुए
मेरी ख़ातिर देर न करना और सफ़र करते जाना
तलाश करनी थी इक रोज़ अपनी ज़ात मुझे
मैं चाहता हूँ हक़ीक़त-पसंद हो जाऊँ
गुज़र ही जाएगी 'शहज़ाद' जो गुज़रनी है
वो कोई और है जिस ने तुझे चाहा होगा
शौक़-ए-सफ़र बे-सबब और सफ़र बे-तलब