खुले असरार उस पर जिस्म के आहिस्ता आहिस्ता
बहुत दिन में उसे बातें न करने का हुनर आया
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यार होते तो मुझे मुँह पे बुरा कह देते
जहाँ में मंज़िल-ए-मक़्सूद ढूँडने वाले
जीने मरने के दरमियान एक साअत
पास रह कर भी न पहचान सका तू मुझ को
इबलीस भी रख लेते हैं जब नाम फ़रिश्ते
वाक़िआ ये है कि रस्ता और वीराँ हो गया
कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना
झूटी बातें रहने दो
ज़मीन नाव मिरी बादबाँ मिरे अफ़्लाक
वो जा चुका है तो क्यूँ बे-क़रार इतने हो
कुछ तेरे सबब थी मिरे पहलू में हरारत
न सही कुछ मगर इतना तो किया करते थे