पास रह कर भी न पहचान सका तू मुझ को
दूर से देख के अब हाथ हिलाता क्या है
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इस क़दर तेज़ न चल साँस उखड़ जाएगा
वो ख़ुश-नसीब थे जिन्हें अपनी ख़बर न थी
तन्हाई में आ जाती हैं हूरें मिरे घर में
बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
कभी कभी छलक उठता है आब ओ रंग उन का
वो जा चुका है तो क्यूँ बे-क़रार इतने हो
आरज़ूओं ने कई फूल चुने थे लेकिन
लबों पे आ के रह गईं शिकायतें कभी कभी
दिल पर भी आओ एक नज़र डालते चलें
दिल बहुत मसरूफ़ था कल आज बे-कारों में है
उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब