कभी कभी छलक उठता है आब ओ रंग उन का
वगरना दश्त तो सूखे हुए समुंदर हैं
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मैं गुल-ए-ख़ुश्क हूँ लम्हे में बिखर सकता हूँ
खुले असरार उस पर जिस्म के आहिस्ता आहिस्ता
झूटी बातें रहने दो
दिल-आराम
जिस के बाइस अभी ठंडक है मिरे सीने में
मंज़िल पे जा के ख़ाक उड़ाने से फ़ाएदा
एक से मंज़र देख देख कर आँखें दुखने लगती हैं
ख़ुद ही तस्वीर बनाता हूँ मिटा देता हूँ
इक आग फिर भड़क उट्ठी है दीदा ओ दिल में
चराग़ ख़ुद ही बुझाया बुझा के छोड़ दिया
हर तरफ़ फैली हुई थी रौशनी ही रौशनी
शहर को छोड़ के वीरानों में आबाद तो हो