कल थी ये फ़िक्र उसे हाल सुनाएँ कैसे
आज ये सोचते हैं उस को सुना क्यूँ आए
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बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे
कुछ तज़किरा-ए-हुस्न से रौशन थे दर-ओ-बाम
आरज़ूओं ने कई फूल चुने थे लेकिन
इस दौर-ए-बे-दिली में कोई बात कैसे हो
सारी मख़्लूक़ तमाशे के लिए आई थी
सफ़र-ए-शौक़ है बुझते हुए सहराओं में
करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
बे-ताबी-ए-ग़म-हा-ए-दरूँ कम नहीं होगी
भटकती हैं ज़माने में हवाएँ
दरख़्तों पर कोई पत्ता नहीं था
एक लम्हे में कटा है मुद्दतों का फ़ासला
मेरी ख़ातिर देर न करना और सफ़र करते जाना