इक आग फिर भड़क उट्ठी है दीदा ओ दिल में
कुछ अश्क फिर सर-ए-मिज़्गाँ दिखाई देते हैं
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ठहर गई है तबीअत इसे रवानी दे
उस को ख़बर हुई तो बदल जाएगा वो रंग
उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब
सब की तरह तू ने भी मिरे ऐब निकाले
बिखरे हुए तारों से मिरी रात भरी है
ख़ल्क़ बे-परवा ख़ुदा बंदों से तंग आया हुआ
कब तक कड़कती धूप में आँखें जलाएँ हम
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
यूँ तो हम अहल-ए-नज़र हैं मगर अंजाम ये है
वो ख़ुश-नसीब थे जिन्हें अपनी ख़बर न थी
आँख-मिचोली
हमारे पेश-ए-नज़र मंज़िलें कुछ और भी थीं