दूर से देख के मैं ने उसे पहचान लिया
उस ने इतना भी नहीं मुझ से कहा कैसे हो
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ख़ल्क़ बे-परवा ख़ुदा बंदों से तंग आया हुआ
न मैं ने दस्त-शनासी का फिर किया दावा
ज़हरीली तख़्लीक़
आती है दम-ब-दम ये सदा जागते रहो
मुंतज़िर दश्त-ए-दिल-ओ-जाँ है कि आहू आए
भटकती हैं ज़माने में हवाएँ
यादों की ज़ंजीरें
दरख़्तों पर कोई पत्ता नहीं था
हम अपने हाल पर ख़ुद रो दिए हैं
प्यार के रंग-महल बरसों में तय्यार हुए
रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को