न मैं ने दस्त-शनासी का फिर किया दावा
न उस ने हाथ मुझे चूमने दिया फिर से
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जहाँ में मंज़िल-ए-मक़्सूद ढूँडने वाले
उदास छोड़ गए कश्तियों को साहिल पर
हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
मुझे बस इतनी शिकायत है मरने वालों से
खुली फ़ज़ा में अगर लड़खड़ा के चल न सकें
कहीं भी साया नहीं किस तरफ़ चले कोई
जैसे मुँह-बंद कली रात के वीराने में
किस लिए वो शहर की दीवार से सर फोड़ता
यूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ की क़सम खाए हुए हों
डूब जाएँगे सितारे और बिखर जाएगी रात
दश्त में कैसी दीवारें
अगरचे कार-ए-दुनिया कुछ नहीं है