किस लिए वो शहर की दीवार से सर फोड़ता
क़ैस दीवाना सही इतना भी दीवाना न था
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हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
मैं सुन रहा हूँ मगर दूसरों को कैसे सुनाऊँ
तू कुछ भी हो कब तक तुझे हम याद करेंगे
अब अपने चेहरे पर दो पत्थर से सजाए फिरता हूँ
वो कोई और है जिस ने तुझे चाहा होगा
रहने दिया न उस ने किसी काम का मुझे
रूह की आग
शम्अ जलते ही यहाँ हश्र का मंज़र होगा
दिल से ये कह रहा हूँ ज़रा और देख ले
ज़बानें थक चुकीं पत्थर हुए कान
गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं
गुज़रने ही न दी वो रात मैं ने