अब अपने चेहरे पर दो पत्थर से सजाए फिरता हूँ
आँसू ले कर बेच दिया है आँखों की बीनाई को
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बहुत शर्मिंदा हूँ इबलीस से मैं
ख़ल्क़ बे-परवा ख़ुदा बंदों से तंग आया हुआ
गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं
जब आफ़्ताब न निकला तो रौशनी के लिए
तुझ में कस-बल है तो दुनिया को बहा कर ले जा
अब जहाँ मैं हूँ वहाँ मेरे सिवा कुछ भी नहीं
जुलते हैं इक चराग़ की लौ से कई चराग़
जान मुक़द्दर में थी जान से प्यारा न था
घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू
बस एक लम्हे में क्या कुछ गुज़र गई दिल पर
अब तो इंसान की अज़्मत भी कोई चीज़ नहीं
न मिले वो तो तलाश उस की भी रहती है मुझे